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.. उजड़े ख़्वाब…

उजड़े ख़्वाब…

सजाए जितने ख़्वाब सारे उजड़ते चले गए

संवरने की ख़्वाहिश में और बिगड़ते चले गए

 

रिश्तों की गिरहों में यूं उलझी है ज़िंदगी यह

सुलझने की कोशिश में और उलझते चले गए

 

वो ख़्वाब जो टूट गए, उन्हें क्या नाम दें अब

वो बेनाम ही इन आँखों से फिसलते चले गए

 

जब सजाए थे ख़्वाब, तो खुशी बेहिसाब हुई

जब बिखरे तो किर्चआँखों में चुभते चले गए

 

नहीं था कोई हमनवां ना ही कोई हमराज़ था

हम तने-तन्हा ही इस दर्द को निगलते चले गए

 

देखा जब टुकड़ों में बिखरते हुए ख़्वाबों को

हम फ़ानी जिस्म को अलविदा कहते चले गए

 

अब्दुल हकीम शेख़ ✍️

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