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विदाई

घर में कोलाहल मचा हुआ था, जो जहाँ था,वहीं दहाड़ें मारकर रो रहा था। नीलकमल अंदर गई तो देखा कि नीलू जमीन पर लेटी हुई थी, दिसम्बर की शीतलहर में एक पतला सा कपड़ा ओढे। नीलू को पकड़े अम्मा का रो-रो कर बुरा हाल था। बस एक ही बात दोहराए जा रही थी-“बिटिया जाये के जल्दी काहे रही तोहे, तू काहे चली गई लाडो, हे भोले नाथ ऐसा अनर्थ करते तुम्हारा करेजा कैसे नहीं काँपा, अरे इस बूढ़ी को बुला लिए होते शिव शंभु…हमारी लाडो ने तुम्हारा क्या बिगाडाऽऽऽ ….” बोलते-बोलते अम्मा अचेत हो गई। तो क्या नीलू सबको हमेशा के लिए छोड़ कर चली गई?

अम्मा के मुँह पर पानी के छींटे मार-मारकर उन्हें होश में लाया गया। नीलकमल ने उन्हें ढाँढस देने की बहुत कोशिश की, कहा भी कि जीवन-मृत्यु इंसान के हाथ में कहाँ है…लेकिन अम्मा के कानों तक उसकी आवाज़ नहीं पहुँची। उनके आँसुओं का वेग तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। नीलकमल से देखा नहीं गया। वहाँ से आगे बढी। नीलू की बहनें इधर अलग विलाप कर रही थीं। नीलू की छुटकी बहन बोली जब भी मिलती थी बस हँसी-मजाक ही करती थी, उसको देख कर कोई ये नहीं कह सकता कि उसको किसी बात की तकलीफ़ होगी। बड़की दीदी बोली सबकी नजर लग गई और क्या। उसको जिंदगी से कितना प्यार था, उसके सामने मरने की बात करो तो झिड़क देती थी। कभी किसी को नहीं बताया उसने कि उसको किसी बात का दुख भी है। नीलकमल सुन नहीं पाई, आँखों में पानी भर आया। हट गई वहाँ से। छोटके भैया और भाभी अम्मा के पास आकर बैठ गए थे और उन्हें संभालने की कोशिश करने लगे। बड़के भैया और भाभी आँगन में सबसे दूर खड़े थे। नीलकमल उनके पास गई ये कहने कि जाकर थोड़ा बहनों को संभालें। जैसे ही करीब पहुँची, बड़की भाभी की आवाज़ सुनाई पड़ी – “क्या नौटंकी है, जल्दी से सब निपटाते क्यों नहीं। कब तक इस मरघट में रहना पडेगा।” नीलकमल वितृष्णा से भर उठी। उसे लगा था कि नीलू की मौत ने शायद उन दोनों का हृदय परिवर्तन कर दिया हो…पर नहीं। नीलू के दोनों बच्चे आँगन के दूसरे छोर पर एक-दूसरे का हाथ पकड़े रोए जा रहे थे। उनको ऐसे देखकर नीलकमल का कलेजा मुँह को आ गया। कोई नहीं था इन बच्चों को सांत्वना देने के लिए उनके पास। वह उनके पास बैठ गई। उनको आलिंगन में भरकर बोली मैं हमेशा तुमलोगों के साथ हूँ बच्चों। नानी की पुकार सुनकर बच्चे वहाँ से चले गये। नीलू के पति भी एक कोने में सिर झुकाए बैठे थे। वहाँ से गुजरते हुए उसने उनके सिर पर हाथ फेरा।

नीलकमल की आँखें बाबा को खोज रही थी। किसी को उनका ख्याल तक न आया। आँगन को पार कर एक गलियारे में आ गई। गलियारे के बायें तरफ बने कमरों में बाबा नहीं थे। उसको चिंता होने लगी। वह पीछे के बगीचे में गई। इधर-उधर देखा। कहीं नहीं दिखे। उसे कुछ याद आया। आगे बढी और एक छोटे-से तालाब के पास पहुँची। बाबा वही बैठे थे। उसने पूछा -“बाबा आप यहाँ अकेले क्या कर रहे हैं”? बाबा ने कोई जवाब नहीं दिया। पीछे मुड़कर देखा भी नहीं। नीलकमल बाबा के पास खड़ी हो गई। बाबा कुछ बोल रहे थे और बार-बार गमछे से आँखों को पोंछ रहे थे। यह दूसरी बार था जब बाबा को रोते देख रही थी। पहली बार नीलू की विदाई में रोए थे, खूब रोए थे। आज फिर एक बार नीलू की विदाई में रो रहे हैं। नीलकमल सुनने की कोशिश करने लगी, बाबा क्या कुछ तो बोल रहे थे- “बिटिया हमको जाना था, तू काहे चली गई। हमको पराया काहे समझी बिटिया, आपन दुख केहु से न बतियाये रही। काहे बिटिया। इ दुख के बोझ तोहार बाप कैसे उठाई… ” कहते-कहते बाबा फूट पड़े। नीलकमल उनके पैरों के पास बैठ गई। रूँधी हुई आवाज़ में बोली- आप ही लोगों ने तो बचपन से सहिष्णुता और त्याग की सीख दी थी बाबा और कब उस सीख को आत्मसात करते-करते आत्मसम्मान और आत्मविश्वास मर गया, पता ही नहीं चला। विदाई के समय आपने ही तो यह कहा था कि बिटिया इस घर से तू डोली में विदा हो रही है, उस घर से अर्थी में ही निकलना। डोली से अर्थी तक ही एक औरत के जीवन का सफर होता है क्या बाबा? काश! आपने ये कहा होता बाबा कि बिटिया हम तुमको विदा तो कर रहे हैं मगर अपने आपको पराया नहीं समझना। ये तेरा ही घर है बिटिया। तेरे अम्मा और बाबा हमेशा तेरे साथ हैं, तू जब चाहे चली आना। अगर आपने ये उम्मीद दी होती तो शायद उसी दिन आपकी बिटिया आपके पास आ गई होती जिस दिन उसे पहली बार गालियाँ दी गई थीं, जिस दिन उसपर पहली बार हाथ उठाया गया था, जिस दिन उससे ये कहा गया था कि वो घर न तो उसका है, न उसके बाप का। बाबा आपकी बात का ही तो मान रखा आपकी बिटिया ने, तय किया डोली से अर्थी तक का सफर।

श्मशान जाने का समय हो गया था। लोगों की पुकार सुनकर बाबा आँखें पोंछते अंदर जाने लगे। नीलकमल के वहाँ होने का एहसास उन्हें नहीं हुआ। नीलकमल वहीं बैठी रही। वह जानती थी कि जैसे ही नीलू को मुखाग्नि दी जाएगी, वह भी पंचतत्व में विलीन हो जाएगी। पर तब तक आखिरी बार वह अपने घर … नहीं-नहीं अपने घर नहीं अपने माँ-बाप के घर में थोड़ी देर और रह ले।

 

डाॅ. श्वेता रानी

विशाखपट्टणम

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