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*//एक औरत की ज़िंदगी//* 

एक औरत की ज़िंदगी आसां कहाँ होती है,

हर बात में उसकी परीक्षा क्यों होती है?

जब तक वो सबकी बातों में सर हिलाती है,

“संस्कारी” कहकर दुनिया सर झुकाती है।

 

मगर जिस दिन वो अपने मन की बात कह देती है,

खुशियों के लिए अपनी राह चुन लेती है —

तो वही दुनिया उंगली उठाने लग जाती है,

उसके हर फैसले पर सवाल उठाती है।

 

क्या उसका मुस्कुराना जुर्म बन गया?

क्या खुद से प्यार करना भ्रम बन गया?

क्या औरत को जीने का हक़ नहीं?

क्या उसके भी कोई सपने सच नहीं?

 

वो भी तो इंसान है, परछाईं नहीं,

उसके भी अरमान हैं, कोई परवाई नहीं।

कभी बेटी, कभी माँ, कभी बीवी बनी है,

हर किरदार में खुद को खोती रही है।

 

अब वो जागी है, अब वो बोलेगी,

अपने हक़ की राह खुद ही खोलेगी।

नहीं अब वो बस सहती जाएगी,

अपने लिए भी जीना अब सिख जाएगी।

 

दुनिया को अब ये समझाना होगा,

हर औरत को उसका सपना भी पाना होगा।

वो सिर्फ़ त्याग की मूरत नहीं होती,

उसके बिना कोई सुबह नहीं होती।

 

परिधि जैन

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