🌸 *मोह संसार का मार्ग और निर्मोहता मोक्ष का मार्ग : सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमण* 🌸
*-मोह के मार्ग का परित्याग करने वाले आचार्यश्री ने बताया वीरपुरुष
*-नवरात्र के दिनों में मंगल प्रवचन से पूर्व आचार्यश्री नित्य करा रहे हैं आध्यात्मिक अनुष्ठान का प्रयोग*
*09.10.2024, बुधवार, वेसु, सूरत (गुजरात) :*
आश्विन मास का शुक्लपक्ष मानों शक्ति की आराधना अद्भुत अवसर होता है। तभी तो भारत की प्रत्येक संस्कृति में चहुंओर शक्ति की आराधना में जनता जुटी हुई है। देश के विभिन्न हिस्सों में उस आराधना के रूप में अलग हो सकते हैं, किन्तु सभी की भावनाएं और भक्ति बेजोड़ प्रतीत होती है। इस शक्ति की आराधना में सूरत शहर में चतुर्मासरत जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में हजारों-हजारों भक्त प्रतिदिन आध्यात्मिक अनुष्ठान से जुड़ते हैं। जिन्हें स्वयं आचार्यश्री अपने मंगल प्रवचन से पूर्व आर्षवाणी के द्वारा प्रयोग कराते हैं, उसके उपरान्त श्रद्धालु अपने ढंग से शक्ति की आराधना करते हैं। वहीं दूसरी ओर पूरे गुजरात में इस शक्ति की आराधना में लोग गरबे आदि माध्यम से भी जुड़े हुए हैं।
बुधवार को भी महावीर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालु जनता को सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने मंगल प्रवचन से पूर्व आध्यात्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत विभिन्न मंत्रों का प्रयोग कराया। तदुपरान्त शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि जो मनुष्य वीर होता है और जो भीतर की आसक्ति को जीतने में समर्थ होता है, वह वीरपुरुष लोक संयोग का अतिक्रमण कर लेता है। सोना, चांदी आदि पदार्थ हैं, माता-पिता आदि पारिवारिकजन हैं उनके प्रति ममत्व भाव है, वह संसार है। एक ओर संसार है और दूसरी ओर मोक्ष का मार्ग है। मोह, ममत्व का भाव संसार का मार्ग है और निर्मोहता मोक्ष का मार्ग है। जो वीर पुरुष होता है, वह निर्मोहता के मार्ग पर चलता है और मोक्ष की ओर गतिमान हो जाता है। जो अवीर हैं, आसक्ति में रहने वाले हैं, परिवार के मोह-ममता में रचा-पचा होता है, वह संसार के मार्ग पर चलता जाता है।
मोक्ष के मार्ग पर चलने के लिए मोक्ष का परित्याग करना पड़ता है। मोह का तो मानों पूरा परिवार होता है। गुस्सा, अहंकार, माया, ममता, राग-द्वेष, घृणा, वासना आदि-आदि मोह के पारिवारिक सदस्य होते हैं। परिग्रह का त्याग करना वीरता के समान होता है। कितने-कितने मनुष्य साधु बने हैं। इतिहास को देखें या उससे पहले के काल को भी देखें तो कितने-कितने मनुष्य संतता को प्राप्त हुए हैं। हमारे धर्मसंघ में ही देखें तो परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी जीवन के बारहवें वर्ष में साधु बन गए थे। लोक के समस्त संयोग का अतिक्रमण करना ही साधुत्व के लक्षण होते हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने ग्यारहवें वर्ष में ही साधु बन गए थे। साधु को तो अपने भीतर संबंधातीत होना चाहिए। राग और मोह से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने उपस्थित जनता को उद्बोधित किया।